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V.A
Девушка мечта

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बोलिये शिवशंकर भगवाने की जै!
प्रिय भक्तों,
श्री शिव महा पुरान के शत रुद्र सहिता की अगली कथा है
शिव जी का शुचिष्मती के गर्व से प्राकट
ब्रह्मा द्वारा बालक का संसकार करके ग्रहपती नाम रखा जाना
नारत्घी ध्वारा उसकाities-फविश्य कतन
पिता की आक्यासे ग्रह पतिका काशी मं जाकर तपकर ना
इंढ्र का वर देने के लिए प्रकत हुणा
ग्रह पतिका उने ठुकृाणा
प्रकठों कर उन्हें वर्दान दे कर दिक्पाल पद
प्राप्त करना तथा अगनिश्वर लिंग और अगनी का महात्म।
तो आईए भक्तों,
आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ चोद्वा और पंद्रुमा अध्याय।
गंदिश्वर जी कहते हैं,
हेमुने।
घर आकर उस ब्राहमन ने बड़े हर्ष के साथ
अपनी पत्नी से वे सारा व्रतान्त के सुनाया।
उसे सुनकर विप्रपत्नी शुचिष्मती को महान आनन्द प्राप्त हुआ।
वे अध्यन्त प्रेम पूर्वक अपने भाग की सराहना करने लगी।
तर अंतर समय आने पर ब्राहमन द्वारा विधी पूर्वक
गर्बाधान कर्म संपन्य किये जाने पर वे नारी करफ़ती हुई।
भेरुन विद्वान मुनी ने गर्ब के स्पंधन करने से पूर्व
ही पुनस्त्व की वध्धी के लिए ग्रिह सूत्र में वर्णित
विधी के अनुसार सम्यक रूप से पुनस्वन संसकार किया।
पुर्वान पच्चात आठ्वा महिना आने पर करपालू विश्वानर ने
सुक्पूर्वग प्रसव होने के अभिप्राय से गर्व के रूप की
सम्रत्धी करने वाला सीमन्त संसकार संपन्य कराया।
तदुप्रांत ताराओं के अनुकूल होने पर जब रस्पती
केंद्रवर्ती हुए और शुब ग्रहों का योग आया,
तब शुब लग्न में भगवान शंकर उनके मुख
की कांती पुरीमा के चंद्रमा के समान है।
तथाज्जो अरिष्ट रूपी दीपक को बुजाने
वाले समस्त अरिष्टों के विनाशक और भूआ,
भूआ,
स्वाह
तीनों लोकों के निवासियों को सब तरह से सुख देने वाले हैं।
उस शुची स्रमती के कर्व से पुतरूप में प्रघट हुए।
अगर वाहन वायू के वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन
वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन
वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन
वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वा
प्रियभाशनी हो उठी
सम्पून प्रसिद्ध रिशी मनी तथा देवता
यक्ष किन्नर विध्याधर आदी मंगल द्रव्यित
ले लेकर पधारे
स्वयम ब्रह्मा जी ने नमर्ता पूर्वक उसका
जातकरम संसकार किया
और उस बालक के रूप तथा भीद का विचार करके यह
निश्चे किया कि उसका नाम ग्रहपती होना चाहिए
फिर ग्यारवे दिन उन्होंने नाम करन की विधी के अनुसार वेद
मंत्रों का उचारन करते हुए उसका ग्रहपती यहसा नाम करन किया
तद पश्चाद सबके पितामें ब्रह्मा चारो वेदों में कथित
आशिर्वादात्मक मंत्रों द्वारा उसका अभिनन्दन करके
हन्स पर आरुढ हो
अपने लोक को चले गए
तदुपरांद शंकर भी
लोक की गती का आश्रेले उस बालक की उचित रख्षा का
विधान करके अपने वाहन पर चड़कर अपने धाम को पधार गए
इसी परकार शरी हरी ने भी अपने लोक की राह ली इसपरकार सभी देवता,
रिशी,
मुनी,
आदी भी पशंचा करते हुए अपने अपने इस्तान को पधार गए
तद अंतर ब्राह्मन देवता ने यथा समय सब संसकार करते हुए
बालक को विध्या ध्यन कराया तद पश्यात नवा वर्ष आने पर
माता पिता की सेवा में तद पर रहने वाले विश्वानर नन्दन
ग्रहपती को देखने के लिए वहां नारत जी पधारे
बालक ने माता पिता सहित नारत जी को प्रणाम किया
फिर नारत जी ने बालक की हस्तरेखा,
जिव्या,
तालू अधी देख कर कहा
हे मुनी विश्वानर,
मैं तुम्हारे पुत्र के लक्षनों का वर्णन करता हूं.
तुम आधर पूर्वक उसे शवन करो।
तुमारा यह पुत्र परम्भाग्यवान है।
इसके संपूर्ण अंगों के लक्षन शुब है।
इन्तु इसके सर्वगुण संपन्न संपूर्ण शुब लक्षनों से
समन्वित और चंद्रमा के समान संपूर्ण निर्मल कलाओं
से शुबित होने पर भी विधधाता ही इसकी रक्षा करें।
इसलिए सब तरहें के उपायों द्वारा इस शिशु की रक्षा करनी चाहीं।
क्योंकि विधधाता के विपरीत होने पर गुण भी दोश हो जाता है।
मुझे शंका है कि इसके बारवे वर्ष में
इसपर बिजली अथ्वा अगनी द्वारा विगन आएगा।
यों कहकर नारत जी जैसे आए थे वैसे ही देवलोक को चले गई।
संत कुमार जी नारत जी का कथन सुनकर पत्नी सहीत
विश्वानर ने समझ लिया कि है तो बड़ा भहंकर वज्रपात हुआ।
फिर वे हाई मैं मारा गया। यों कहकर छाती फीटने लगे और
पुत्र शोक से व्याकुल होकर गहरी मूर्च्छा के वशी भूत हो गए।
उधर शुचिषमती भी दुक से पीडित हो अथ्यन्त उंचे
स्वर से हाहा कार करती हुई धाड मार कर रो रही थी।
उसकी सारे इंद्रियां अथ्यन्त व्याकुल हो उठी। तब पत्नी के आर्थनाद
को सनकर विश्वानर भी मूर्च्छा त्याग कर उठ पैठे। और एह ये क्या,
ये क्या है,
क्या हुआ। यों उच्छ स्वर से बोलते हुए कहने लगी।
ग्रह्पती,
जो मेरा बाहार विचरने वाला प्रान्ड,
मेरी सारे इंद्रियों का स्वामी
तथा मेरे अंतरात्मा में विनिवास करने वाला है,
कहां है।
तब माता पिता को इसप्रकार अठिन्द शोक गरस्त देखकर,
शंकर के अंश से उतपन्य हुआ वे बाला ग्रह्पती मुस्कराखर बोला।
ग्रह्पती ने कहा,
माता जी तथा पिता जी,
बताईए इस समय आप लोगों के रोनी का क्या कारण है,
किसली आप लोग फूट फूट कर रो रहे हैं,
कहां से ऐसा भै आप लोगों को प्राप्त हुआ है।
यदि मैं आपकी चरन रेनूओं से अपनी शरीर की रख्षा कर लूँ,
तो मुझे पर काल भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।
फिर इस तुछ चंचलेवं अल्प बलवाली मिठ्यू की तो बात ही क्या है।
माता पिताजी,
अब आप लोग मेरी प्रतिग्या सुनिए।
यदि मैं आप लोगों का पुत्र हूँ,
तो ऐसा प्रितन करूँगा,
जिससे मिठ्यू भी भैभीत हो जाय।
मैं सत्वपुर्शों को सब कुछ दे डालने वाले सरवग्य
मिठ्यू जै की भली भाती आराधना करके महाकाल को भी जीत
लूँगा। यह मैं आप लोगों से बिल्कुल सत्य कह रहा हूँ।
नन्दिश्वर कहते हैं,
हे मुने तवे द्विज्दमपत्ति जो शोक से संतप्त हो रहे थे।
ग्रहपती के ऐसे वचन जो अकाल में हुई मिठ्यू की घनगोर विष्टी के समान थे।
सुनकर संताप रहित हो कहने लगे,
हे बेटा तो उन शिव की शरण में जा,
जो ब्रह्मा अधी के भी करता, मेगवाहत,
अपनी महिमा से कभी चुतन होने वाले और विश्व की रक्षा मनी है।
नन्दिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने माता पिता की आज्या पाकर
ग्रहपती ने उनके चर्णों में प्रणाम किया,
फिर उनकी प्रदिख्षणा करके और उन्हें बहुत तरहें से आश्वासन दे,
वे वहाँ से चल पड़े,
और उस काशी पुरी में जा पोहंचे,
जो ब्रह्मा और नारायन आधी देवों के लिए भी दुश प्राप्पिय,
महा प्रले के संताप का विनाश करने वाली और �
विश्वनात का दुशित थी,
वहाँ पहुँचकर वे विप्रवर पहले मनी करणी का पर दे,
वहाँ उन्होंने विधी पूर्वक इस्तान करके भगवान विश्वनात का दर्शन किया,
फिर बद्धिमान ग्रहपतीने परमाननद मग्न हो त्रिलोकी के प्राणियों की प्र
और ये सोच रहे थे कि ये लिंग निसंदेह सपश्ट रूप से आनंद कंद ही है,
वहे कहने लगे,
अहो,
आज मुझे जो सर्ववापि श्रीमहान विश्वनात का दर्शन प्राप्त हुआ,
इसके लिए इस चराचर त्रिलोकी में मुझसे
बढ़कर धन्यवाद का पात्र दूसरा कोई नहीं है,
जान परता है,
मेरा भाग्योध्या होने से ही,
उन दिनों मैं महरशी नारद ने आकर वैसी बात कही थी,
जिसके कारण आज मैं कृत कृत्य हो रहा हूं।
नारज जी,
इसप्रकार एक मात्र शिव में मन लगाकर तपस्या करते हुए,
उस महात्मा ग्रहपती की आयु का एक वर्ष वतीत हो गया।
अब जन्म से बार्मा वर्ष आने पर नारज जी
के कहे हुए उस वचन को सत्यसा करते हुए,
वज्रधारी इंद्र उनके निकट पधारे और पोले,
एविप्रवर मैं इंद्र हूँ और तुम्हारे शोव वर्ष से प्रसन्न होकर आया हूँ,
अब तुम वर मांगो,
मैं तुम्हारी मनोवाण्चा पून करदूंगा।
अब क्रिहपती ने कहा,
हे मगवन मैं जानता हूँ,
आप वज्रधारी इंद्र हैं,
परन्तो विद्धशत्रों,
मैं आपसे वर्याचना करना नहीं चाहता,
मेरे वर्दायक तो शंकर जी ही होंगे।
वज्रधारी बोले,
शिशो,
शंकर मुझसे भिन्द थोड़े ही हैं,
अरे मैं देवराज हूँ,
अते तुम अपनी मूर्खता का परित्याग करके वर मांग लो,
देर मत करो।
ग्रहःपती ने कहा,
हे पाकशासन,
आप अहल्या के सतित्तु नष्ट करने वाले दुराचारी परवच्चत्रू ही है न,
आप जाईये,
क्योंकि मैं पशुपती के अतिक किसी अन्य देव के
सामने सपश्ट उप से प्रार्थना करना नहीं चाहता।
पश्च से उसे जीवन दान देते हुए वे बोले,
हे वच्च उठ
तेरा कल्यान हो। तब रात्री के समय मुदे हुए कमल की तरहें
उसके नेट्र कमल खुल गए और उसने उठकर अपने सामने सैकडो
सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान शम्भू को वस्तिर देखा।
उनके ललाट में तीस्रा नेट्र चमक रहा था। गले में
नीला चिन्न था। ध्वजा पर वशब का स्वरूप दीख रहा था।
वामांग में गिर्जा देवी विराजमान थी,
मस्तक पर चंद्रमास शोबित था। बड़ी-बड़ी जटाओं से उनकी अद्भुद शोबा
हो रही थी। वे अपने आयुद्ध तृशूल और आजगव धनुष्ठारन किये हुए थे।
कपूर के समान गोरवर्ण का शरीर अपनी प्रभावि केर
रहा था। वे गजजर्म लपेटे हुए थे। उन्हें देख कर
शास्त्र कतित लक्षनों तथा गुरुवचनों से जब
ग्रहपती ने समझ लिया कि ये महादेव ही हैं,
तब हर्ष के मारे उनके नित्रों में आ�
लाव नहीं डाल सकते। यह तो मैंने तुम्हारी परिशा ली हैं
और मैंने ही तुम्हें इंद्र रूप धारन करके डराया है।
हे भद्र,
अब मैं तुम्हें वरदेता हूँ,
आज से तुम अगनी पद के भागी होगे,
तुम समस्त देवताओं के लिए वरदाता बनोगे।
हे अगने,
तुम समस्त प्राणियों के अंदर जट्रागनी रूप से विच्रन करोगे। तुम्हें
दिकपाल रूप से धर्मराज और इंद्र के मध्यमें राज की प्राप्ती होगी।
तुम्हारे द्वारा इस्ठापित है शिवलिंग,
तुम्हारे नाम पर अगनिश्वर नाम से प्रसिद्ध होगा।
यह सब प्रकार के तेजों की वद्धी करने वाला होगा।
जो लोग इस अगनिश्वर लिंग के भक्त होंगे,
उन्हें बिजली और अगनी का भै नहीं रह जाएगा। अगनी मान्ध
नामक रोग नहीं होगा और न कभी उनकी अकाल मृत्यों ही होगी।
काशीपुरी में स्थित संपून स्रमद्धियों के प्रदाता
अगनिश्वर की भली भाती अर्चना करने वाला भक्त यदी प्रारब्दवश
किसी अन्य स्थान में भी मृत्यों को प्राप्त होगा,
तो भी वह वहिल्न लोक में प्रतिष्ठित होगा।
नन्दिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने,
यों कहकर शिवजी ने ग्रिहपती के बंधुओं को बुलाकर
उनकी माता पिता के सामने उस अगनी का दिगपती पद पर
अभिशेक कर दिया और स्वेम उसी लिंग में समा गए।
हे तात,
इस प्रकार मैंने तुमसे परमात्मा शंकर के ग्रिहपती नामक
अगन्य अवतार का जो दुश्चों को पीड़ित करने वाला है वर्णन कर दिया।
जो सुद्रिद प्राक्रमी जितेंद्रीय पुरुष अथवा
सत्व संपन्य इस्त्रियां अगनी प्रवेश कर जाती हैं,
वे सबकी सब अगनी सरीखे तेजश्वी होते हैं।
इसी प्रकार जो ब्राह्मन अगनी हुत्रपारायन,
ब्रह्मचारी तुथा पंचागनी का सेवन करने वाले हैं,
वे अगनी के समान वर्चस्वी होकर अगनी लोक में विचरते हैं।
जो शीत काल में शीत निवारन के निमित बोज की बोज लकडियां दान करता है,
अत्वा जो अगनी की इश्टी करता है,
वे अगनी के सन्नीकट निवास करता है।
जो शद्धा पूर्वग किसी अनात मृतक का अगनी संसकार करता है
अत्वा स्वेम शक्ती न होने पर दूसरे को प्रिरित करता है,
वे अगनी लोक में प्रशंसित होता है।
द्विजातियों के लिए परम कल्यान कारक एक अगनी ही है,
वही निष्चे रूप से गुरू,
देवता,
वरत,
तीर्त,
अर्थाथ सब कुछ है। जितनी उपावन वस्तुवें हैं,
वे सब अगनी का संसर्ग होने से उसी खण पावन हो जाती हैं,
इसलिए अगनी को पावक
चने वाले हैं,
पालन करने वाले हैं और संगार करने वाले हैं,
भला इसके बिना कौन सी वस्तुव दर्श्टी गोचर हो सकती हैं,
इनके द्वारा भक्षन किये हुए धूप,
दीप,
नयविध,
दूद,
दही,
घी और खांड आदी का देवगण स्वर्ग में सेवन करते हैं
शिश्यु महा पुरान के शत रुद्ध सहीता की ये कथा
और चोधमा और पंद्रमा अध्याय हाँ पर समाप्त होते हैं
तो स्नेहं और आदर के साथ बोलिये
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैए
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
प्रिय भक्तों,
श्री शिव महा पुरान के शत रुद्र सहिता की अगली कथा है
शिव जी का शुचिष्मती के गर्व से प्राकट
ब्रह्मा द्वारा बालक का संसकार करके ग्रहपती नाम रखा जाना
नारत्घी ध्वारा उसकाities-फविश्य कतन
पिता की आक्यासे ग्रह पतिका काशी मं जाकर तपकर ना
इंढ्र का वर देने के लिए प्रकत हुणा
ग्रह पतिका उने ठुकृाणा
प्रकठों कर उन्हें वर्दान दे कर दिक्पाल पद
प्राप्त करना तथा अगनिश्वर लिंग और अगनी का महात्म।
तो आईए भक्तों,
आरम्ब करते हैं इस कथा के साथ चोद्वा और पंद्रुमा अध्याय।
गंदिश्वर जी कहते हैं,
हेमुने।
घर आकर उस ब्राहमन ने बड़े हर्ष के साथ
अपनी पत्नी से वे सारा व्रतान्त के सुनाया।
उसे सुनकर विप्रपत्नी शुचिष्मती को महान आनन्द प्राप्त हुआ।
वे अध्यन्त प्रेम पूर्वक अपने भाग की सराहना करने लगी।
तर अंतर समय आने पर ब्राहमन द्वारा विधी पूर्वक
गर्बाधान कर्म संपन्य किये जाने पर वे नारी करफ़ती हुई।
भेरुन विद्वान मुनी ने गर्ब के स्पंधन करने से पूर्व
ही पुनस्त्व की वध्धी के लिए ग्रिह सूत्र में वर्णित
विधी के अनुसार सम्यक रूप से पुनस्वन संसकार किया।
पुर्वान पच्चात आठ्वा महिना आने पर करपालू विश्वानर ने
सुक्पूर्वग प्रसव होने के अभिप्राय से गर्व के रूप की
सम्रत्धी करने वाला सीमन्त संसकार संपन्य कराया।
तदुप्रांत ताराओं के अनुकूल होने पर जब रस्पती
केंद्रवर्ती हुए और शुब ग्रहों का योग आया,
तब शुब लग्न में भगवान शंकर उनके मुख
की कांती पुरीमा के चंद्रमा के समान है।
तथाज्जो अरिष्ट रूपी दीपक को बुजाने
वाले समस्त अरिष्टों के विनाशक और भूआ,
भूआ,
स्वाह
तीनों लोकों के निवासियों को सब तरह से सुख देने वाले हैं।
उस शुची स्रमती के कर्व से पुतरूप में प्रघट हुए।
अगर वाहन वायू के वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन
वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन
वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन
वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वाहन वा
प्रियभाशनी हो उठी
सम्पून प्रसिद्ध रिशी मनी तथा देवता
यक्ष किन्नर विध्याधर आदी मंगल द्रव्यित
ले लेकर पधारे
स्वयम ब्रह्मा जी ने नमर्ता पूर्वक उसका
जातकरम संसकार किया
और उस बालक के रूप तथा भीद का विचार करके यह
निश्चे किया कि उसका नाम ग्रहपती होना चाहिए
फिर ग्यारवे दिन उन्होंने नाम करन की विधी के अनुसार वेद
मंत्रों का उचारन करते हुए उसका ग्रहपती यहसा नाम करन किया
तद पश्चाद सबके पितामें ब्रह्मा चारो वेदों में कथित
आशिर्वादात्मक मंत्रों द्वारा उसका अभिनन्दन करके
हन्स पर आरुढ हो
अपने लोक को चले गए
तदुपरांद शंकर भी
लोक की गती का आश्रेले उस बालक की उचित रख्षा का
विधान करके अपने वाहन पर चड़कर अपने धाम को पधार गए
इसी परकार शरी हरी ने भी अपने लोक की राह ली इसपरकार सभी देवता,
रिशी,
मुनी,
आदी भी पशंचा करते हुए अपने अपने इस्तान को पधार गए
तद अंतर ब्राह्मन देवता ने यथा समय सब संसकार करते हुए
बालक को विध्या ध्यन कराया तद पश्यात नवा वर्ष आने पर
माता पिता की सेवा में तद पर रहने वाले विश्वानर नन्दन
ग्रहपती को देखने के लिए वहां नारत जी पधारे
बालक ने माता पिता सहित नारत जी को प्रणाम किया
फिर नारत जी ने बालक की हस्तरेखा,
जिव्या,
तालू अधी देख कर कहा
हे मुनी विश्वानर,
मैं तुम्हारे पुत्र के लक्षनों का वर्णन करता हूं.
तुम आधर पूर्वक उसे शवन करो।
तुमारा यह पुत्र परम्भाग्यवान है।
इसके संपूर्ण अंगों के लक्षन शुब है।
इन्तु इसके सर्वगुण संपन्न संपूर्ण शुब लक्षनों से
समन्वित और चंद्रमा के समान संपूर्ण निर्मल कलाओं
से शुबित होने पर भी विधधाता ही इसकी रक्षा करें।
इसलिए सब तरहें के उपायों द्वारा इस शिशु की रक्षा करनी चाहीं।
क्योंकि विधधाता के विपरीत होने पर गुण भी दोश हो जाता है।
मुझे शंका है कि इसके बारवे वर्ष में
इसपर बिजली अथ्वा अगनी द्वारा विगन आएगा।
यों कहकर नारत जी जैसे आए थे वैसे ही देवलोक को चले गई।
संत कुमार जी नारत जी का कथन सुनकर पत्नी सहीत
विश्वानर ने समझ लिया कि है तो बड़ा भहंकर वज्रपात हुआ।
फिर वे हाई मैं मारा गया। यों कहकर छाती फीटने लगे और
पुत्र शोक से व्याकुल होकर गहरी मूर्च्छा के वशी भूत हो गए।
उधर शुचिषमती भी दुक से पीडित हो अथ्यन्त उंचे
स्वर से हाहा कार करती हुई धाड मार कर रो रही थी।
उसकी सारे इंद्रियां अथ्यन्त व्याकुल हो उठी। तब पत्नी के आर्थनाद
को सनकर विश्वानर भी मूर्च्छा त्याग कर उठ पैठे। और एह ये क्या,
ये क्या है,
क्या हुआ। यों उच्छ स्वर से बोलते हुए कहने लगी।
ग्रह्पती,
जो मेरा बाहार विचरने वाला प्रान्ड,
मेरी सारे इंद्रियों का स्वामी
तथा मेरे अंतरात्मा में विनिवास करने वाला है,
कहां है।
तब माता पिता को इसप्रकार अठिन्द शोक गरस्त देखकर,
शंकर के अंश से उतपन्य हुआ वे बाला ग्रह्पती मुस्कराखर बोला।
ग्रह्पती ने कहा,
माता जी तथा पिता जी,
बताईए इस समय आप लोगों के रोनी का क्या कारण है,
किसली आप लोग फूट फूट कर रो रहे हैं,
कहां से ऐसा भै आप लोगों को प्राप्त हुआ है।
यदि मैं आपकी चरन रेनूओं से अपनी शरीर की रख्षा कर लूँ,
तो मुझे पर काल भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।
फिर इस तुछ चंचलेवं अल्प बलवाली मिठ्यू की तो बात ही क्या है।
माता पिताजी,
अब आप लोग मेरी प्रतिग्या सुनिए।
यदि मैं आप लोगों का पुत्र हूँ,
तो ऐसा प्रितन करूँगा,
जिससे मिठ्यू भी भैभीत हो जाय।
मैं सत्वपुर्शों को सब कुछ दे डालने वाले सरवग्य
मिठ्यू जै की भली भाती आराधना करके महाकाल को भी जीत
लूँगा। यह मैं आप लोगों से बिल्कुल सत्य कह रहा हूँ।
नन्दिश्वर कहते हैं,
हे मुने तवे द्विज्दमपत्ति जो शोक से संतप्त हो रहे थे।
ग्रहपती के ऐसे वचन जो अकाल में हुई मिठ्यू की घनगोर विष्टी के समान थे।
सुनकर संताप रहित हो कहने लगे,
हे बेटा तो उन शिव की शरण में जा,
जो ब्रह्मा अधी के भी करता, मेगवाहत,
अपनी महिमा से कभी चुतन होने वाले और विश्व की रक्षा मनी है।
नन्दिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने माता पिता की आज्या पाकर
ग्रहपती ने उनके चर्णों में प्रणाम किया,
फिर उनकी प्रदिख्षणा करके और उन्हें बहुत तरहें से आश्वासन दे,
वे वहाँ से चल पड़े,
और उस काशी पुरी में जा पोहंचे,
जो ब्रह्मा और नारायन आधी देवों के लिए भी दुश प्राप्पिय,
महा प्रले के संताप का विनाश करने वाली और �
विश्वनात का दुशित थी,
वहाँ पहुँचकर वे विप्रवर पहले मनी करणी का पर दे,
वहाँ उन्होंने विधी पूर्वक इस्तान करके भगवान विश्वनात का दर्शन किया,
फिर बद्धिमान ग्रहपतीने परमाननद मग्न हो त्रिलोकी के प्राणियों की प्र
और ये सोच रहे थे कि ये लिंग निसंदेह सपश्ट रूप से आनंद कंद ही है,
वहे कहने लगे,
अहो,
आज मुझे जो सर्ववापि श्रीमहान विश्वनात का दर्शन प्राप्त हुआ,
इसके लिए इस चराचर त्रिलोकी में मुझसे
बढ़कर धन्यवाद का पात्र दूसरा कोई नहीं है,
जान परता है,
मेरा भाग्योध्या होने से ही,
उन दिनों मैं महरशी नारद ने आकर वैसी बात कही थी,
जिसके कारण आज मैं कृत कृत्य हो रहा हूं।
नारज जी,
इसप्रकार एक मात्र शिव में मन लगाकर तपस्या करते हुए,
उस महात्मा ग्रहपती की आयु का एक वर्ष वतीत हो गया।
अब जन्म से बार्मा वर्ष आने पर नारज जी
के कहे हुए उस वचन को सत्यसा करते हुए,
वज्रधारी इंद्र उनके निकट पधारे और पोले,
एविप्रवर मैं इंद्र हूँ और तुम्हारे शोव वर्ष से प्रसन्न होकर आया हूँ,
अब तुम वर मांगो,
मैं तुम्हारी मनोवाण्चा पून करदूंगा।
अब क्रिहपती ने कहा,
हे मगवन मैं जानता हूँ,
आप वज्रधारी इंद्र हैं,
परन्तो विद्धशत्रों,
मैं आपसे वर्याचना करना नहीं चाहता,
मेरे वर्दायक तो शंकर जी ही होंगे।
वज्रधारी बोले,
शिशो,
शंकर मुझसे भिन्द थोड़े ही हैं,
अरे मैं देवराज हूँ,
अते तुम अपनी मूर्खता का परित्याग करके वर मांग लो,
देर मत करो।
ग्रहःपती ने कहा,
हे पाकशासन,
आप अहल्या के सतित्तु नष्ट करने वाले दुराचारी परवच्चत्रू ही है न,
आप जाईये,
क्योंकि मैं पशुपती के अतिक किसी अन्य देव के
सामने सपश्ट उप से प्रार्थना करना नहीं चाहता।
पश्च से उसे जीवन दान देते हुए वे बोले,
हे वच्च उठ
तेरा कल्यान हो। तब रात्री के समय मुदे हुए कमल की तरहें
उसके नेट्र कमल खुल गए और उसने उठकर अपने सामने सैकडो
सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान शम्भू को वस्तिर देखा।
उनके ललाट में तीस्रा नेट्र चमक रहा था। गले में
नीला चिन्न था। ध्वजा पर वशब का स्वरूप दीख रहा था।
वामांग में गिर्जा देवी विराजमान थी,
मस्तक पर चंद्रमास शोबित था। बड़ी-बड़ी जटाओं से उनकी अद्भुद शोबा
हो रही थी। वे अपने आयुद्ध तृशूल और आजगव धनुष्ठारन किये हुए थे।
कपूर के समान गोरवर्ण का शरीर अपनी प्रभावि केर
रहा था। वे गजजर्म लपेटे हुए थे। उन्हें देख कर
शास्त्र कतित लक्षनों तथा गुरुवचनों से जब
ग्रहपती ने समझ लिया कि ये महादेव ही हैं,
तब हर्ष के मारे उनके नित्रों में आ�
लाव नहीं डाल सकते। यह तो मैंने तुम्हारी परिशा ली हैं
और मैंने ही तुम्हें इंद्र रूप धारन करके डराया है।
हे भद्र,
अब मैं तुम्हें वरदेता हूँ,
आज से तुम अगनी पद के भागी होगे,
तुम समस्त देवताओं के लिए वरदाता बनोगे।
हे अगने,
तुम समस्त प्राणियों के अंदर जट्रागनी रूप से विच्रन करोगे। तुम्हें
दिकपाल रूप से धर्मराज और इंद्र के मध्यमें राज की प्राप्ती होगी।
तुम्हारे द्वारा इस्ठापित है शिवलिंग,
तुम्हारे नाम पर अगनिश्वर नाम से प्रसिद्ध होगा।
यह सब प्रकार के तेजों की वद्धी करने वाला होगा।
जो लोग इस अगनिश्वर लिंग के भक्त होंगे,
उन्हें बिजली और अगनी का भै नहीं रह जाएगा। अगनी मान्ध
नामक रोग नहीं होगा और न कभी उनकी अकाल मृत्यों ही होगी।
काशीपुरी में स्थित संपून स्रमद्धियों के प्रदाता
अगनिश्वर की भली भाती अर्चना करने वाला भक्त यदी प्रारब्दवश
किसी अन्य स्थान में भी मृत्यों को प्राप्त होगा,
तो भी वह वहिल्न लोक में प्रतिष्ठित होगा।
नन्दिश्वर जी कहते हैं,
हे मुने,
यों कहकर शिवजी ने ग्रिहपती के बंधुओं को बुलाकर
उनकी माता पिता के सामने उस अगनी का दिगपती पद पर
अभिशेक कर दिया और स्वेम उसी लिंग में समा गए।
हे तात,
इस प्रकार मैंने तुमसे परमात्मा शंकर के ग्रिहपती नामक
अगन्य अवतार का जो दुश्चों को पीड़ित करने वाला है वर्णन कर दिया।
जो सुद्रिद प्राक्रमी जितेंद्रीय पुरुष अथवा
सत्व संपन्य इस्त्रियां अगनी प्रवेश कर जाती हैं,
वे सबकी सब अगनी सरीखे तेजश्वी होते हैं।
इसी प्रकार जो ब्राह्मन अगनी हुत्रपारायन,
ब्रह्मचारी तुथा पंचागनी का सेवन करने वाले हैं,
वे अगनी के समान वर्चस्वी होकर अगनी लोक में विचरते हैं।
जो शीत काल में शीत निवारन के निमित बोज की बोज लकडियां दान करता है,
अत्वा जो अगनी की इश्टी करता है,
वे अगनी के सन्नीकट निवास करता है।
जो शद्धा पूर्वग किसी अनात मृतक का अगनी संसकार करता है
अत्वा स्वेम शक्ती न होने पर दूसरे को प्रिरित करता है,
वे अगनी लोक में प्रशंसित होता है।
द्विजातियों के लिए परम कल्यान कारक एक अगनी ही है,
वही निष्चे रूप से गुरू,
देवता,
वरत,
तीर्त,
अर्थाथ सब कुछ है। जितनी उपावन वस्तुवें हैं,
वे सब अगनी का संसर्ग होने से उसी खण पावन हो जाती हैं,
इसलिए अगनी को पावक
चने वाले हैं,
पालन करने वाले हैं और संगार करने वाले हैं,
भला इसके बिना कौन सी वस्तुव दर्श्टी गोचर हो सकती हैं,
इनके द्वारा भक्षन किये हुए धूप,
दीप,
नयविध,
दूद,
दही,
घी और खांड आदी का देवगण स्वर्ग में सेवन करते हैं
शिश्यु महा पुरान के शत रुद्ध सहीता की ये कथा
और चोधमा और पंद्रमा अध्याय हाँ पर समाप्त होते हैं
तो स्नेहं और आदर के साथ बोलिये
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जैए
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
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