चिन्कल
अपरंपार परंपराएँ हैं शिव, कैलाश की चलती अवाएं
मेगों से उठती घटाएं तेरे रूप की भिखरी जटाएं
तेरी देन है जीवन आयू धर्ती आकाश अगनी जल वायू
इच्छा, शक्ती, भकती, मुक्ती, उक्ती सब नत, मस्तक तुमको जुक्ती
हाँ स्वर्ग, नरक, भू, लोक, तीन, तीनों के तीन जिसके अधीन
उस महाँ देव में मैं हुलीन
समय काल से परे है सब कुछ अदबूत जो भी तु करे
तेरी मोजूदगी संकट हरे जटाँ धर, आदी देव गंगा धरे
या सर्प जाने, या लुटिया जाने, या जाने तिराक मंडल
हैं कितनी परिथमियां, कितने जगत, अरे कितने और सोर मंडल
है
मेरे जखमों की है मरहम शिव, तिरा नाम जपू मैं हर दम शिव,
ये गीतों में जो सरगम है, मेरी लेखनी का जो वर्णन,
सारी तिरी बातें अमुले, कोई भी ना शम्भू तिरे तुले,
मेरी आत्रा पर तेरा नियंतरन, मुझे हो जैन का निमंतरन,
शिवा, तुम ही सरव शक्ती मान, तुम ही विद्यावान, तुम ही धनवान,
असीमित आरंभ और परिणाम, कृष्ण विश्वरूपम शिरी राम,
तुम से मुसीबतों का हरण, तेरी भगती का हो वाता वरण,
तेरी इच्छा मेरा जीवन मरण, अंतह मुझे मिले शिवधाम में शरण,