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Daan Duijf
Still Waters
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बोलिये शिवशंकर भगवान की जए!
प्रिये भक्तों,
श्रीशिव महापुरान के रुद्र सहीता,
पंचम युद्धखंड की अगली कता है,
देवताओं और दानवों का युद्ध,
शंक चूड के साथ वीर भद्र का संग्राम,
तो आईए भक्तों,
आरंब करते हैं इस कथा के साथ
36 से लेकर 40 अध्याय के बीच की कथा.
सनत कुमार जी कहते हैं,
हे महरशे,
जब उस दूत ने शंक्चूड के पास जाकर
विस्तार पूर्वक शिवजी का वचन के सुनाया,
तथा ततत्व उनके यथार्थ निश्चे को भी प्रगट किया,
तो उसे सुनकर प्रतापीद आनवराज शंक्चूड ने भी परम्परसन्नता पूर्वक
युद्ध को ही अंगीकार किया,
फिर तो वे तुरंत ही मंत्रियों सहीथ रत पर जा बैठा,
और उसने अपनी सेना को �
तथा देवों को आगे बढ़ने की आग्या दी,
और सुहें भी लीलावश युद्ध के लिए सनन्द हो गए.
फिर तो शिगर ही युद्ध आरम्ब हो गया,
उस समय नाना प्रकार के रणवाद्ध बजने लगे,
वीरों के शब्द और कॉलाहल चारो और गूंज उठे,
स्वयं महिंद्र वरश परवों के साथ लडने लगे और
विप्रचित्ती के साथ सूर्य का धर्म युद्ध होने लगा.
विश्णू दंब के साथ भीशन संग्राम करने लगे,
कालासूर से काल,
कोकण से अगनी,
कालके से कुवेर,
मैं से विश्वकर्मा, भयंकर से मृत्यू,
संघार से यम्,
कालाम्बिक से वरुन,
चंचल से वायू,
घटपृष्ट से बुद्ध, रक्ताक्ष से शनिष्चर,
र
गणों से वसूगन,
दोनों दिप्ती मानों से दोनों अश्वनी कुमार,
धूम्र से नलकूबर,
धुरंधर से धर्म,
गणकाक्ष से मंगल,
शूभाकर से वैश्वानर,
पिपिट से मन्मप,
गोकामुक से चून,
खडक,
धूम्र, संघल, पृतापी विश्व और पलाश ना
लेने लगे.
इस प्रकार शिव की सहायता के लिए आये हुए
अम्रों का असुरों के साथ युद्ध होने लगा.
ग्यारेहो महारुद्धर,
महान बल्पराकरम से संपन्य,
ग्यारेह भेंकर असुर वीरों से भिडगे,
उग्र और चंड आदी के साथ महामनी, राहु के साथ �
प्रकार शिव की सहायता के लिए आये हुए अम्रों के साथ युद्ध होने लगे.
विस्तार भैसे उनका प्रतक वर्णन नहीं किया गया है.
हेमुने उस समय सारी सेनाय निरंतर युद्ध में व्यस्त थी
और शंभु काल्यसुत के साथ वट व्रक्ष के नीचे विराजमान थे.
उदर शंकचूड भी रत्ना भर्णों से विभुशित हो करोडो
दानूओं के साथ रमणिय रत्नसिंगहासन पर बैठा हुआ था.
फिर देवताओं तथासुरों में चिरकाल तक अत्यंत भयानक युद्ध होता रहा.
तद अंतर शंकचूड भी आकर उस भीशन संग्राम में चुट गया.
इसी बीच महाबली वीर भीरभध्र
समर्भूमी में बल्शाली शंकचूड से जाबिड़े.
हे व्यास जी,
इसी समय देवी भध्रकाली ने समर्भूमी में आकर बड़ा भहंकर सिंगनाद किया.
उनके उस शब्द को सुनकर सभी दानव मूर्चित हो गये.
उस समय देवी ने बारंबार अठास किया
और मदुपान करके वे रन के मुहाने पर नित्य करने लगी.
उनके साथ ही उग्रदंस्ट्रा,
उग्रदंडा और कोटवी ने भी मदुपान किया तथा अन्यान देवीों
ने भी खूब मधुपी कर युध्यस्तल में नाचना अरम्ब किया.
उस समय शिवगणों तथा देवों के दलों में महान कोलाहल मच गया.
सारा सुर समुदाय बहुत परकार से गरजणा करता हुआ हर्ष मगन हो गया.
तद अंतर काली ने शंख चूर के ऊपर परले कालीन
अगनी की शिखा के समान उधिप्त आगने आस्तर चलाया.
परन्तु दानवराज ने वैश्णव आस्तर से उसे शीगर ही शांत कर दिया.
तब देवी भत्रकाली ने उसपर नायन आस्तर का प्रियोग किया.
वैश्णव दानव शत्रु को देखकर बढ़ने लगा.
तब प्रिले आगनी की जौला के समान उधिप्त होते हुए,
नारायन आस्तर को देखकर शंख चूर दंड की भाती
भूमी पर लेट गया और बारंबार प्रणाम करने लगा.
तब उस दानव को नम्र हुआ देखकर �
दानव राज ने भूमी पर खड़े होकर उसे प्रणाम किया
और ब्रह्मास्त्र से ही उसका निवारन कर दिया.
तरंतरव हे दानव राज कुपित हो उठा और वेग पूर्वक अपने धनुश को खीच कर
देवी के उपर मंत्र पाठ करते हुए दिव्यास्त्रों की वर्षा
तब शंख चूड ने काली के उपर एक सो योजन लंभी शक्ती से वार किया
परन्तु देवी ने अपने दिव्यास्त्र समूं से उसके सो टुकडे कर दिये
योन दोनों में चिरकाल तक युद्ध होता रहा और
सभी देवता तथा दानव दर्शक बनकर उसे देखते रहे अ
और उसी खशन मुर्चित हो गया
एर खशन भर में ही उसकी चेतना लोट आई और वे उठखडा हुआ
परन्तु उस पृतापी ने मात्र बुद्धी होने के कारण देवी के साथ बाहू
युद्ध नहीं किया तब देवी ने उस दानव को पकड़कर उसे बारंबार घुमाय
युद्ध में वे तनिक भी ब्रांत नहीं हुआ था
बलकि उसका मन प्रसन्य था तत पस्चात वे बद्रकाली को प्रणाम
करके बहुमुल्य रत्नों द्वारा निर्मित अपने परम अनोहर विमान पर
जा बैठा इधरकाली का मुक से विहल होकर दानवों का रक्तपात करने
देड़ लाख दानविंद्र और बची हैं
ये बड़े उध्धत हैं अते तुम इन्हें अपना आहार बनालो
परंतु देवी संग्राम में दानवराज शंक्षुर को मारने के लिए मन मत दोडाओ
क्योंकि यह तुम्हारे लिए अवध्य है
ऐसा निश्चे समझो
आकाशवानी द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर
देवी भद्रकाली ने बहुत से दानवों का मास पक्षन किया
और ऐसा करके उनका रक्तपात किया
और फिर वे शिवजी के निकट चली गई
वहाँ उनोंने पूर्वापर के गरम से सारा युद्ध वर्धान्त के सुनाया
व्यास जी ने पूछा
हे महा बुद्धीमान सनत कुमार जी
काली का वैकथन सुनकर महिश्वर ने उस समय क्या कहा
और कौनसा कारिय किया
मेरे मन में उसे सुनने की प्रभल उतकंथा जाग उठी है
सनत कुमार जी बोले
हे मुने
शम्भू तो जीवों के कल्यान करता परमिश्वर और बड़े लीला विहारी है
वे काली द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर
उन्हें आश्वसन देते हुए हसने लगे
तदंतरा काश्वानी को सुनकर तत्व ज्यान विशारद
स्वयम शंकर अपने गणों के साथ समर्भूमी की ओर चले
उस समय वे महावरशब नन्दिश्वर पर सवार थे
और उनहीं के समान पराक्रमी वीर भद्र भैरव और छित्र पाल आदी उनके साथ थे
रणभूमी में पहुँचकर
महिश्वर ने भी रूप धारण किया
उस समय उन रुद्र की बड़ी शोभा हो रही
थी और वे बूर्थिवान काल से दीख रहे थे
जब शंक्छूर की द्रिश्टी शिवजी पर पड़ी तो वे विमान
से उतर पड़ा और परम भक्ती के साथ डंड की भाती पृत्वी
पर लोट कर उनसे सिर के बल उने प्रणाम करने लगा
इस प्रकार नवसकार करने के पश्यात वे तुरंथ ही अपने विमान पर जा बैठा
और कवज धारन करके उसने धनुश बान उठाया
फिर तो दोनों ओर से बानों की जढडी लग गई
यों व्यर्थ ही बान वर्षा करने वाले शिव और
शंक्छूड का वै उग्र युद सैक्डो वर्षों तक चलता रहा
अन्त में युद्ध स्थल में शंक्छूड का वद्ध करने के लिए
महाबरी महिश्वर ने सहसा अपना वे तिर्शूल उठाया जिसका
निवारन करना बड़े बड़े तेजस्यूं के लिए भी आशक्य है
तब ददकाल ही उसका निशेद करने के लिए यों आकाश्वाने हुई
हे शंकर मेरी प्रार्थना सुनिए और इस समय इस तिर्शूल को मत चलाईए
हे ईश यद्ध भी आप खण मात्र में पूरे
ब्रह्मान्ड का विनाश करने में सर्वधा समर्थ हैं
फिर इस अकेले दानव शंक्छूड की तो बात ही क्या है
तत्थापी आप स्वामी के द्वारा देव मरियादा का विनाश नहीं होना चाहिए
हे महादेव
आप उस देव मरियादा को सुनिए और उसे सत्य वं सफल बनाईए
वह देव मरियादा यह है कि जब तक इस शंक्छूड के हाथ में श्री हरी का
परम उग्र कवच वर्तमान रहेगा और इसकी पतिवरता पत्नी तुलसी का सतित्व
अखंडित रहेगा तब तक इस पर जरा और मृत्यू अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे
अतेहे जगधीश्वर शंकर ब्रह्मा के इस वचन को सत्य कीजिए
तब सत्पुर्शों के आश्रे स्वरूप शिवजी ने उस आकाश
वानी को सुनकर तथास्तु कहकर उसे स्विकार किया
और विश्णू को उस कारिय के लिए प्रिरित किया
फिर तो शिवजी की इच्छा से विश्णू वहां से चल पड़े वे तो मायावियों
में भी श्रेष्ट मायाविय ठेरे अतेहे उनोंने एक वृद्ध ब्राह्मन
का अभीष्धारन किया और शंक चूर के निकट चाकर उनसे यों कहा
वृद्ध ब्राह्मन बोले दानवें�
तो तुम देना स्वीकार कर लोगे
तब पीछे मैं उसे बताऊंगा
और तब तुम उसे पून करना
ब्राह्मन की बात सुनकर राजेंद्र शंक चूर
का मुख और नेत्र परसन्नता से खील उठे
जब उसने ओम कहकर उसे स्वीकार कर लिया तब ब्राह्मन ने छल पूर्वक कहा
मैं तुमारा कवच चाहता हूं
यह सुनकर एश्वरेशाली दानव राज शंक चूर
ने जो ब्राह्मन भक्त और सत्यवाधी था
वे दिव्य कवच जो उसे प्रान की समान था
ब्राह्मन को दे दिया
शंक चूर की रूपद्धरण करके वे तुलसी के पास पोहँचे
महां जाकर सबके आत्माईवं तुलसी के नित्त स्वामी श्री
हरी ने शंक चूर के रूप में उसके शील का हारन कर लिया
इसी समय विश्नू भगवान ने शम्भू से अपनी सारी बात के सुनाई।
तव शिवजी ने शंक्चूर के बद के निमित अपना उधिप्त तिर्शूल हात में लिया।
परमात्मा शंकर का यह विजए नामक तिर्शूल अपनी उतकिष्ट प्रभाब खेर
रहा था। उससे सारी दिशाएं पिर्थ्वी और आकाश प्रकाशित हो उठे।
वहे मद्ध्यान कालीन करोडो सूर्यों तथा
प्रले आगनी की शिखा के समान चमकीला था। उसका निवारन करना संभव था।
वहे दुरघश कभी व्यर्थ ने होने वाला उशत्रों का संघारक था।
वहे तेजों का त्यन्त उग्र समूं,
सम्पून शस्त्रास्त्रों का सहायक,
भयंकर और सारे देवताओं तथा असुरूं के लिए दुस्सेह था।
वहे की इस्थान पर ऐसा दमक रहा था,
मानों लीला का आकाश्रे लेकर संपून ब्रह्मान्ड का
संघार करने के लिए उध्धत हो। उसकी लंबाई एक हजार,
धनुश और चोड़ाई सो हात थी।
उस जीव ब्रह्म स्वरूप शूल का
किसी के द्वारा निर्मान नहीं हुआ था।
उसका रूप नित्य था। आकाश में चक्कर कारता हुआ वहे तिर्शूल,
हे विप्रू।
शिवजी के उपर लगातार पुश्वों की वर्षा होने लगी।
और ब्रह्मा,
विश्णो,
इंद्र अधी देवता तथा मुनीगण उनकी प्रशंसा करने लगे।
दानवराज संखचूड भी शिवजी की कृपा से शाप मुक्त हो गया और
उसे उसके पूर्व श्री कृष्ण पार्शद रूप की प्राप्ती हो गई।
हे महामुने,
श्री हरियोरम लक्ष्मी जी को तथा उनके संबंधियों
को भी शंख का जल विशेष रूप से अत्यंत प्रिय है।
किन्तु शिव के लिए नहीं। इस प्रकार शंखचूड को मार कर शंकर,
ऊमा,
सकंध और गणों के साथ परसन्नता पूर्वक
नन्दिश्वर पर सवार हो शिव लोक को चले गई।
भगवान विश्णू ने वैकुंठ के लिए प्रस्थान किया
और देवगण परमाननद मगन हो अपने अपने लोक को चले गई।
उस समय जगत में चारों और परमशान्ती च्छा गई। सब को
निर्विगन रूप से सुख मिलने लगा। आकाश निर्मल हो गया।
वो सारी प्रत्वी पर उठ्तम उठ्तम मंगल कारिये होने लगे।
हे मुने,
इस परकार मैंने तुमसे महेश के जिस चरित्र का वर्णन किया है,
वहे आनंद दायक
सर्वदुख हारी,
लक्ष्मी प्रद और संपून कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जई।
प्रिये भगतों,
इस परकार यहां पर
श्रिशिव महा पुरान के रुद्र सहिता
पंचम युद्धकंड की ये कथा और
36 अध्याय से
लेकर 40 अध्याय तक की कथा समाप्त होती है।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जई।
प्रिये भक्तों,
श्रीशिव महापुरान के रुद्र सहीता,
पंचम युद्धखंड की अगली कता है,
देवताओं और दानवों का युद्ध,
शंक चूड के साथ वीर भद्र का संग्राम,
तो आईए भक्तों,
आरंब करते हैं इस कथा के साथ
36 से लेकर 40 अध्याय के बीच की कथा.
सनत कुमार जी कहते हैं,
हे महरशे,
जब उस दूत ने शंक्चूड के पास जाकर
विस्तार पूर्वक शिवजी का वचन के सुनाया,
तथा ततत्व उनके यथार्थ निश्चे को भी प्रगट किया,
तो उसे सुनकर प्रतापीद आनवराज शंक्चूड ने भी परम्परसन्नता पूर्वक
युद्ध को ही अंगीकार किया,
फिर तो वे तुरंत ही मंत्रियों सहीथ रत पर जा बैठा,
और उसने अपनी सेना को �
तथा देवों को आगे बढ़ने की आग्या दी,
और सुहें भी लीलावश युद्ध के लिए सनन्द हो गए.
फिर तो शिगर ही युद्ध आरम्ब हो गया,
उस समय नाना प्रकार के रणवाद्ध बजने लगे,
वीरों के शब्द और कॉलाहल चारो और गूंज उठे,
स्वयं महिंद्र वरश परवों के साथ लडने लगे और
विप्रचित्ती के साथ सूर्य का धर्म युद्ध होने लगा.
विश्णू दंब के साथ भीशन संग्राम करने लगे,
कालासूर से काल,
कोकण से अगनी,
कालके से कुवेर,
मैं से विश्वकर्मा, भयंकर से मृत्यू,
संघार से यम्,
कालाम्बिक से वरुन,
चंचल से वायू,
घटपृष्ट से बुद्ध, रक्ताक्ष से शनिष्चर,
र
गणों से वसूगन,
दोनों दिप्ती मानों से दोनों अश्वनी कुमार,
धूम्र से नलकूबर,
धुरंधर से धर्म,
गणकाक्ष से मंगल,
शूभाकर से वैश्वानर,
पिपिट से मन्मप,
गोकामुक से चून,
खडक,
धूम्र, संघल, पृतापी विश्व और पलाश ना
लेने लगे.
इस प्रकार शिव की सहायता के लिए आये हुए
अम्रों का असुरों के साथ युद्ध होने लगा.
ग्यारेहो महारुद्धर,
महान बल्पराकरम से संपन्य,
ग्यारेह भेंकर असुर वीरों से भिडगे,
उग्र और चंड आदी के साथ महामनी, राहु के साथ �
प्रकार शिव की सहायता के लिए आये हुए अम्रों के साथ युद्ध होने लगे.
विस्तार भैसे उनका प्रतक वर्णन नहीं किया गया है.
हेमुने उस समय सारी सेनाय निरंतर युद्ध में व्यस्त थी
और शंभु काल्यसुत के साथ वट व्रक्ष के नीचे विराजमान थे.
उदर शंकचूड भी रत्ना भर्णों से विभुशित हो करोडो
दानूओं के साथ रमणिय रत्नसिंगहासन पर बैठा हुआ था.
फिर देवताओं तथासुरों में चिरकाल तक अत्यंत भयानक युद्ध होता रहा.
तद अंतर शंकचूड भी आकर उस भीशन संग्राम में चुट गया.
इसी बीच महाबली वीर भीरभध्र
समर्भूमी में बल्शाली शंकचूड से जाबिड़े.
हे व्यास जी,
इसी समय देवी भध्रकाली ने समर्भूमी में आकर बड़ा भहंकर सिंगनाद किया.
उनके उस शब्द को सुनकर सभी दानव मूर्चित हो गये.
उस समय देवी ने बारंबार अठास किया
और मदुपान करके वे रन के मुहाने पर नित्य करने लगी.
उनके साथ ही उग्रदंस्ट्रा,
उग्रदंडा और कोटवी ने भी मदुपान किया तथा अन्यान देवीों
ने भी खूब मधुपी कर युध्यस्तल में नाचना अरम्ब किया.
उस समय शिवगणों तथा देवों के दलों में महान कोलाहल मच गया.
सारा सुर समुदाय बहुत परकार से गरजणा करता हुआ हर्ष मगन हो गया.
तद अंतर काली ने शंख चूर के ऊपर परले कालीन
अगनी की शिखा के समान उधिप्त आगने आस्तर चलाया.
परन्तु दानवराज ने वैश्णव आस्तर से उसे शीगर ही शांत कर दिया.
तब देवी भत्रकाली ने उसपर नायन आस्तर का प्रियोग किया.
वैश्णव दानव शत्रु को देखकर बढ़ने लगा.
तब प्रिले आगनी की जौला के समान उधिप्त होते हुए,
नारायन आस्तर को देखकर शंख चूर दंड की भाती
भूमी पर लेट गया और बारंबार प्रणाम करने लगा.
तब उस दानव को नम्र हुआ देखकर �
दानव राज ने भूमी पर खड़े होकर उसे प्रणाम किया
और ब्रह्मास्त्र से ही उसका निवारन कर दिया.
तरंतरव हे दानव राज कुपित हो उठा और वेग पूर्वक अपने धनुश को खीच कर
देवी के उपर मंत्र पाठ करते हुए दिव्यास्त्रों की वर्षा
तब शंख चूड ने काली के उपर एक सो योजन लंभी शक्ती से वार किया
परन्तु देवी ने अपने दिव्यास्त्र समूं से उसके सो टुकडे कर दिये
योन दोनों में चिरकाल तक युद्ध होता रहा और
सभी देवता तथा दानव दर्शक बनकर उसे देखते रहे अ
और उसी खशन मुर्चित हो गया
एर खशन भर में ही उसकी चेतना लोट आई और वे उठखडा हुआ
परन्तु उस पृतापी ने मात्र बुद्धी होने के कारण देवी के साथ बाहू
युद्ध नहीं किया तब देवी ने उस दानव को पकड़कर उसे बारंबार घुमाय
युद्ध में वे तनिक भी ब्रांत नहीं हुआ था
बलकि उसका मन प्रसन्य था तत पस्चात वे बद्रकाली को प्रणाम
करके बहुमुल्य रत्नों द्वारा निर्मित अपने परम अनोहर विमान पर
जा बैठा इधरकाली का मुक से विहल होकर दानवों का रक्तपात करने
देड़ लाख दानविंद्र और बची हैं
ये बड़े उध्धत हैं अते तुम इन्हें अपना आहार बनालो
परंतु देवी संग्राम में दानवराज शंक्षुर को मारने के लिए मन मत दोडाओ
क्योंकि यह तुम्हारे लिए अवध्य है
ऐसा निश्चे समझो
आकाशवानी द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर
देवी भद्रकाली ने बहुत से दानवों का मास पक्षन किया
और ऐसा करके उनका रक्तपात किया
और फिर वे शिवजी के निकट चली गई
वहाँ उनोंने पूर्वापर के गरम से सारा युद्ध वर्धान्त के सुनाया
व्यास जी ने पूछा
हे महा बुद्धीमान सनत कुमार जी
काली का वैकथन सुनकर महिश्वर ने उस समय क्या कहा
और कौनसा कारिय किया
मेरे मन में उसे सुनने की प्रभल उतकंथा जाग उठी है
सनत कुमार जी बोले
हे मुने
शम्भू तो जीवों के कल्यान करता परमिश्वर और बड़े लीला विहारी है
वे काली द्वारा कहे हुए वचन को सुनकर
उन्हें आश्वसन देते हुए हसने लगे
तदंतरा काश्वानी को सुनकर तत्व ज्यान विशारद
स्वयम शंकर अपने गणों के साथ समर्भूमी की ओर चले
उस समय वे महावरशब नन्दिश्वर पर सवार थे
और उनहीं के समान पराक्रमी वीर भद्र भैरव और छित्र पाल आदी उनके साथ थे
रणभूमी में पहुँचकर
महिश्वर ने भी रूप धारण किया
उस समय उन रुद्र की बड़ी शोभा हो रही
थी और वे बूर्थिवान काल से दीख रहे थे
जब शंक्छूर की द्रिश्टी शिवजी पर पड़ी तो वे विमान
से उतर पड़ा और परम भक्ती के साथ डंड की भाती पृत्वी
पर लोट कर उनसे सिर के बल उने प्रणाम करने लगा
इस प्रकार नवसकार करने के पश्यात वे तुरंथ ही अपने विमान पर जा बैठा
और कवज धारन करके उसने धनुश बान उठाया
फिर तो दोनों ओर से बानों की जढडी लग गई
यों व्यर्थ ही बान वर्षा करने वाले शिव और
शंक्छूड का वै उग्र युद सैक्डो वर्षों तक चलता रहा
अन्त में युद्ध स्थल में शंक्छूड का वद्ध करने के लिए
महाबरी महिश्वर ने सहसा अपना वे तिर्शूल उठाया जिसका
निवारन करना बड़े बड़े तेजस्यूं के लिए भी आशक्य है
तब ददकाल ही उसका निशेद करने के लिए यों आकाश्वाने हुई
हे शंकर मेरी प्रार्थना सुनिए और इस समय इस तिर्शूल को मत चलाईए
हे ईश यद्ध भी आप खण मात्र में पूरे
ब्रह्मान्ड का विनाश करने में सर्वधा समर्थ हैं
फिर इस अकेले दानव शंक्छूड की तो बात ही क्या है
तत्थापी आप स्वामी के द्वारा देव मरियादा का विनाश नहीं होना चाहिए
हे महादेव
आप उस देव मरियादा को सुनिए और उसे सत्य वं सफल बनाईए
वह देव मरियादा यह है कि जब तक इस शंक्छूड के हाथ में श्री हरी का
परम उग्र कवच वर्तमान रहेगा और इसकी पतिवरता पत्नी तुलसी का सतित्व
अखंडित रहेगा तब तक इस पर जरा और मृत्यू अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे
अतेहे जगधीश्वर शंकर ब्रह्मा के इस वचन को सत्य कीजिए
तब सत्पुर्शों के आश्रे स्वरूप शिवजी ने उस आकाश
वानी को सुनकर तथास्तु कहकर उसे स्विकार किया
और विश्णू को उस कारिय के लिए प्रिरित किया
फिर तो शिवजी की इच्छा से विश्णू वहां से चल पड़े वे तो मायावियों
में भी श्रेष्ट मायाविय ठेरे अतेहे उनोंने एक वृद्ध ब्राह्मन
का अभीष्धारन किया और शंक चूर के निकट चाकर उनसे यों कहा
वृद्ध ब्राह्मन बोले दानवें�
तो तुम देना स्वीकार कर लोगे
तब पीछे मैं उसे बताऊंगा
और तब तुम उसे पून करना
ब्राह्मन की बात सुनकर राजेंद्र शंक चूर
का मुख और नेत्र परसन्नता से खील उठे
जब उसने ओम कहकर उसे स्वीकार कर लिया तब ब्राह्मन ने छल पूर्वक कहा
मैं तुमारा कवच चाहता हूं
यह सुनकर एश्वरेशाली दानव राज शंक चूर
ने जो ब्राह्मन भक्त और सत्यवाधी था
वे दिव्य कवच जो उसे प्रान की समान था
ब्राह्मन को दे दिया
शंक चूर की रूपद्धरण करके वे तुलसी के पास पोहँचे
महां जाकर सबके आत्माईवं तुलसी के नित्त स्वामी श्री
हरी ने शंक चूर के रूप में उसके शील का हारन कर लिया
इसी समय विश्नू भगवान ने शम्भू से अपनी सारी बात के सुनाई।
तव शिवजी ने शंक्चूर के बद के निमित अपना उधिप्त तिर्शूल हात में लिया।
परमात्मा शंकर का यह विजए नामक तिर्शूल अपनी उतकिष्ट प्रभाब खेर
रहा था। उससे सारी दिशाएं पिर्थ्वी और आकाश प्रकाशित हो उठे।
वहे मद्ध्यान कालीन करोडो सूर्यों तथा
प्रले आगनी की शिखा के समान चमकीला था। उसका निवारन करना संभव था।
वहे दुरघश कभी व्यर्थ ने होने वाला उशत्रों का संघारक था।
वहे तेजों का त्यन्त उग्र समूं,
सम्पून शस्त्रास्त्रों का सहायक,
भयंकर और सारे देवताओं तथा असुरूं के लिए दुस्सेह था।
वहे की इस्थान पर ऐसा दमक रहा था,
मानों लीला का आकाश्रे लेकर संपून ब्रह्मान्ड का
संघार करने के लिए उध्धत हो। उसकी लंबाई एक हजार,
धनुश और चोड़ाई सो हात थी।
उस जीव ब्रह्म स्वरूप शूल का
किसी के द्वारा निर्मान नहीं हुआ था।
उसका रूप नित्य था। आकाश में चक्कर कारता हुआ वहे तिर्शूल,
हे विप्रू।
शिवजी के उपर लगातार पुश्वों की वर्षा होने लगी।
और ब्रह्मा,
विश्णो,
इंद्र अधी देवता तथा मुनीगण उनकी प्रशंसा करने लगे।
दानवराज संखचूड भी शिवजी की कृपा से शाप मुक्त हो गया और
उसे उसके पूर्व श्री कृष्ण पार्शद रूप की प्राप्ती हो गई।
हे महामुने,
श्री हरियोरम लक्ष्मी जी को तथा उनके संबंधियों
को भी शंख का जल विशेष रूप से अत्यंत प्रिय है।
किन्तु शिव के लिए नहीं। इस प्रकार शंखचूड को मार कर शंकर,
ऊमा,
सकंध और गणों के साथ परसन्नता पूर्वक
नन्दिश्वर पर सवार हो शिव लोक को चले गई।
भगवान विश्णू ने वैकुंठ के लिए प्रस्थान किया
और देवगण परमाननद मगन हो अपने अपने लोक को चले गई।
उस समय जगत में चारों और परमशान्ती च्छा गई। सब को
निर्विगन रूप से सुख मिलने लगा। आकाश निर्मल हो गया।
वो सारी प्रत्वी पर उठ्तम उठ्तम मंगल कारिये होने लगे।
हे मुने,
इस परकार मैंने तुमसे महेश के जिस चरित्र का वर्णन किया है,
वहे आनंद दायक
सर्वदुख हारी,
लक्ष्मी प्रद और संपून कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जई।
प्रिये भगतों,
इस परकार यहां पर
श्रिशिव महा पुरान के रुद्र सहिता
पंचम युद्धकंड की ये कथा और
36 अध्याय से
लेकर 40 अध्याय तक की कथा समाप्त होती है।
बोलिये शिवशंकर भगवाने की जई।
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