Nhạc sĩ: Traditional
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श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायन वासु देवा
बोलिये बन्सी वजईया मुरली वजईया श्री कृष्ण भगवाने की जे
प्रिय भक्तो श्रीमत भगवत कीता का दूसरा ध्याय आरंब करते हैं
और इसकी कथा है सांख्य योग शत्रिय धर्म एवं कर्म योग
तो आईए भक्तो आरंब करते हैं बोलिये श्री कृष्ण भगवाने की जै
महराज ध्रत्राश्ट से संजे ने कहा
हे राजन अश्रू पूरित नित्रों के साथ दुखी हृदय वाले अर्जुन की ओर देखकर
ध्यानिधान भगवान श्री कृष्ण उसको समझाने लगे
मदुसुदन भगवान श्री कृष्ण ने कहा
हे अर्जुन ऐसे विकट समय में तेरे हृदय में यह मोह कहा से आया
ऐसा मोह शुद्र पुर्शों को हुता है
हे पार्थ तु कायर मत बन तुझे यह उचित नहीं है
हे शत्रूओं को जीतने में समर्थ अर्जुन
हृदय से इस मोह पून नीच बुद्धी को त्याग और उठकर खड़ा हो जा
अर्जुन ने कहा
हे मदुसुदन मैं इस संग्राम में भीश्म पिताम
द्रोणाचारिय आदि गुरूओं से किस प्रकार युद्ध करूँगा
हे शत्रो निकन्दन ये दोनों तो पूजा करने ही होगे है
मैं इन पर कैसे बान चलाऊँगा
हे केशव मैं गुरूजनों को मार कर रुधिर से लिप्त भोगों को भोगने की अपेक्षा
भिक्षा मांग कर अन्य खाना अधिकुत्तम समझता हूँ
इस पर भी यदि हम ये अधर्म करने को तत्पर हो भी जाएं
तो हमें ये नहीं मालूम की कौन बली है
वे हमको जीतेंगे या हम उनपर विजय प्राप्त करेंगे
जिनको मार कर हम जीना नहीं चाहते
वे ध्रतराष्ट के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं
इनको मारने से हमारा भला नहीं होगा
अपितु इससे तो अपने ही भाईयो एम सम्मंधियों की मृत्यू होगी
और अपने ही कुल का मिनाश होगा
इन दोनों बातों से मेरा विवेग भ्रमित हो गया है
अब मैं आप से पूछता हूँ कि युद्ध करना
अथवा भिक्षा मांग कर निर्वाह करना
इन दोनों में से कौन सी बात श्रेष्ठ है
इन में जो उचित हो सो कहिए
मैं आपका शिष्य हूँ
आपकी शरन आया हूँ
अर्जुन ने आगे कहा
हे केशव
जिस प्रकार मेरा धर्म बचे
और जो निष्चे कल्यान करने वाला उपाय हो
वही कहिए
हे प्रभुजी
संपून पृत्वी का
निष्कंटक राज्य पाऊं
और देव लोक आदी जो स्वर्ग हैं
उनका अधिपती बन जाओं
तो भी मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं सूचता
जिससे मेरे हिर्दे को दुखाने वाला
मिरा शोक दूर हो जाए
संजय ने कहा
हे राजन
शत्रूं को संताप देने
और जीतने में समर्थ
अर्जुन
श्री कृष्ण से यह कहकर
कि अब मैं युद्ध नहीं करूँगा
चुप हो गया
श्री कृष्ण जी
दोनों सेनाओं के मद्ध में
खड़े विचारने लगे
कि अर्जुन को देह और आत्मा के
अविवेक से शोक उत्पन्न हुआ है
जब तक इसको ज्ञान नहीं होगा
तब तक यह शोक नहीं मिटेगा
यह सोच कर श्री कृष्ण जी
यह तुमारा हट ठीक नहीं है
अर्जुन को समझाते हुए
भगवान श्री कृष्ण आगे बोले
हे पार्थ
ध्यान पूर्वक सुनो
विद्वान लोग जीवित और मरे हुए का
सोच नहीं करते हैं
क्योंकि जीना मरना
दोनों ही मिठ्या है
क्या ये सब पहले नहीं थे
और क्या आगे नहीं होंगे
यह बात नहीं है
इसके पहले भी मैं था
तुम थे
ये सब राजा भी थे
आगे भी हम तुम और ये सब राजा होंगे
हे अर्जुन
जैसे इस देहे की
बाल्य अवस्था
युवावस्था और व्रद्धावस्था तीन अवस्थाएं होती हैं
हम जिस प्रकार पुराने वस्त्र बदल कर नए वस्त्र पहन लेते हैं
उसी प्रकार जीव भी एक देह को छोड़ कर दूसरी देह पाता है
इसमें विवेकी पुर्शों को मोह करना उचित नहीं है
प्रकार जीव भी एक देह को छोड़ कर दूसरी देह पाता है
आर्थ नाश्वान और अनित्य है, सत तो केवल आत्मा है, उसको तु अविनाशी जान, हे पार्थ, तत्व दर्शियोंने भाव और अभाव इन दोनों का तत्व देखा है, वै तत्व ही सब में व्यापक और अविनाशी है, इस अविनाशी का नाश कोई भी नहीं कर सकता, हे
यह भारत यह देह तो नाश्वान है इसमें जो जीव रहता है वही अविनाशी और परिणाम रहित है फिर इस अनित्य देह के वास्ते अपना धर्म क्यों छोड़ता है
इससे हे अर्जुन युद्ध करके यदि कहे कि अमुक को मैंने मारा है तो वह भ्रम्मे है यथार्थ में ना कोई किसी को मारता है और ना कोई मारा ही जाता है
क्योंकि आत्मा तो अमर है
इस आत्मा को न कोई मार सकता है
और नया किसी से मरती ही है
तू जो भीष्म, पिताम है, आदी के मारे जाने का सोच करता है
विवर्थ है
क्योंकि आत्मा तो किसी तरह मरती नहीं
केवल शरीर का नाश होता है
इस से हे अर्जुन
अर्जुन खड़ा होकर युद्ध के लिए तक पर हो जा। आत्मा की अमर्ता के बारे में बतलाते हुए, भगवान कृष्ण आगे बोले, हे अर्जुन, ये आत्मा न कभी जन्म लेती है और न मरती है, न कभी पहले ऐसा हुआ था और न आगे होगा।
ये आत्मा जन्म रहित है, नित्य है, सदा एकरस है और सनातन एवं पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता।
जो इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मा, अविकारी समझता है, वह किसको मरवाता है और किसको मारता है।
हे पुरुष श्रेष्ठ, जैसे मनुष्य पुरातन वस्त्रों को त्याग कर, नए वस्त्रों को धारन कर लेता है
तत्प्रिय यह है कि जैसे पुराने वस्तरों को त्यागने में कुछ कष्ट नहीं होता
वैसे ही देह के त्यागने में भी कुछ कष्ट नहीं होना चाहिए
हे निश्पा परजुन इस आत्मा को शस्त्र भेद नहीं सकते
अगनी जला नहीं सकती
जल इसे भिगो नहीं सकता, और पवन सुखा नहीं सकती, कोई भी शस्त इसे काट नहीं सकता, क्योंकि यह नित्य, सर्वव्यापक, इस्थेर, अचल और शाश्वत है।
हे अर्जुन, यह आत्मा, इंद्रियों और बुद्धी की सीमा से परे है, मन और बुद्धी द्वारा इसको देखा, समझा, अथवा जाना नहीं जा सकता, इसलिए ग्यानी पुर्शों को, ऐसी अमर और विकार रहीत आत्मा को जानकर, इसके लिए सोच नहीं करना चाहिए।
हे भारत, जिसने जन्म लिया है, वे अवश्य मरेगा, और जो मरा है, वे अवश्य जन्म भी लेगा, इससे इन उपाय रहित बातों के लिए तुमारा सोच करना व्यर्थ है।
अर्थात दिखाई देते हैं। तो अब इस पर सोच करने की बात ही क्या है।
तो भी तुझे डराना नहीं चाहिए। क्योंकि क्षत्रिय के लिए युद्ध से उत्तम कोई अन्य धर्म नहीं है।
एपार्थ, तुमको युद्ध का यह पुन्य दायक अवसर स्वैम ही अनायास मिल गया है। अतहत तु अविस्से विमोक मत हो। युद्ध काल में स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। पुन्यवान क्षत्रियों को ही यह युद्ध समागम मिलता है। अर्थात जो शत्रि
पाप भी लगेगा। मनुष्य तुझको सदा बुरा कहेंगे। देखो, प्रतिष्ठित पुरुषों के लिए तु अपकीरती मरने से भी बुरी है। ये सब महारती युद्धा तुझको रण भीरू कहेंगे। जो तुझको बड़ा बानते हैं, उनकी दृष्टी में त�
और यही तेरे तुझसे न कहने योग बाते कहेंगे और तेरे बल तथा पुरुष की सदा निंदा करेंगे। अब तुम ही बताओ, इससे बड़ा दुख कौन सा है।
अर्जुन, हानी लाब को एक समान समझ कर युद्ध के लिए तैयार हो जा। अर्जुन, जो कुछ मैंने इस तरहें तुझसे कहा है, वै सांख्य शास्त्र के अनुसार आत्मा और देह का तत्व समझाया है। अब कर्म योग के विशय में सुन। इसके सुनने, समझने और �
इस पर आच्रण करने से सुख, दुखादी जो कर्म मंधन है, तुम से छूट जाओगे। हे अर्जुन, इस कर्म योग में प्रारंब, अर्थात बीज का नाश नहीं होता और नहीं कर्म के फल की आकांख्षा रहती है। इस धर्म का रेश मात्र भी पालन करना, जन्म मरण
आदि रूपी बड़े भवों से रक्षा करता है। हे कुरुनन्दन, व्यवसायात्मिका बुद्धी एक ही है। अर्थात, जिनकी बुद्धी निष्चल हो गई है, वे मौक्ष के साधन रूप इस कर्म योग में लग जाते हैं। परन्तु जिनका मन विचलित है, वे तरह
करते हैं, तो भी इंद्रियां बलवान हैं। मन को एचलायमान कर देती हैं। इससे हे अर्जुन, स्वर्गादी प्राप्ती की कामना जिनको है, ऐसा सकाम पुरुष भोग और सुख की प्राप्ती के लिए अनेक प्रकारों से यग्यादिक कर्मों को करते रहते हैं। क्यों
उनका मन भी निष्चियात्मक बुद्धी में स्थिर नहीं होता। तो ये सत्य, रज, तम इन तीन गुणों के विशे हैं। हे अर्जुन, तुम इन तीनों गुणों और फिर सुख, दुख, लाभ, हानी को त्याग निर्द्वंद हो जाओ। फिर नित्य ही सत्व में स्थ
हे अर्जुन, जैसे तालाब, सरो और आदी पानी से भरे हुए हैं, परन्तु मनुष्य अपने प्रियोजन भर उनमें से जल लेता है। ऐसे ही ब्रह्म वेता संपून वेदों में से प्रियोजन भर ज्ञान ले लेता है। कर्म करने पर तेरा अधिकार है। फल पर कभी भी
अब तु संशे को त्याग कर, योग में इस्थित होकर अपना कर्म अर्थात युद्ध कर और हार जीत को समान भाव से देख। दोनों की समानता ही योग है। हे अर्जुन, बुद्धी और तरक के चक्कर में पढ़कर कर्म न करना बुरा है। तो बुद्धी हीन होकर केव
नीच मती है, जो बुद्धी योग से कर्म करता है, वैसी संसार में संचित पापुन्यों को त्याग दीता है। इससे तुम बुद्धी योग में प्रवर्थ हो, इस प्रकार का योग
यही कर्मों में कुशल कारक है। जो पंडित जन बुद्धि योग युक्त हैं, वे कर्मफल को त्याग कर जन्मादी बंधन से छूट कर निश्चय ही परंपत को प्राप्त होते हैं। जब तेरी बुद्धि इस मोहरूपी सुख तुक से पार होकर अत्यंत शुद्ध हो जा�
जाएगी, तब तु विरक्त हो जाएगा। अनेक प्रकार के तरक वितरक तथा अनेक लोगों की बातें सुनने से जो तेरी बुद्धि ऐस्थिर हो गई है, वह है जब मेरे वच्णों में इस्थिर हो जाएगी, तब तु योग पाएगा। यह सुनकर अर्जुन ने कहा, ह
हे केशव, परमात्मा को प्राप्त हुए इस्थिर बुद्धी पुरुष के लक्षन, खृपा करके मुझसे बतलाईए। जिसकी बुद्धी इस्थिर हो गई है, वह किस तरहें बोलता है, बैठता है और चलता फिरता है। श्री भगवान बोले,
हे अर्जुन, जिसकी कामना किसी बात पर नहीं, जो मिल जाये उसी को पाकर संतुष्ट है, उसकी निष्चल बुद्धी जानो। जिसका मन दुख से घवराता नहीं है, जिसे सुख में प्रसन्नता नहीं होती, रोग, भैव, क्रोध जिसके पास नहीं आते हैं, वही निष
और जो किसी शुव वस्तु से हर्षित नहीं होता और अशुब की प्राप्ति में शोक नहीं करता, ना किसी से राग और द्वेश है, उसकी बुद्धी निष्चल होती है। जैसे कच्छवा अपने सब अंगों को सिकोड लेता है, उसी तरह जो मनुष्य विश्यों और ला
सक्ति दूर हो जाती है, परिच्छवनी रहती है। परन्तु इस्थिर बुद्धी पुरुष की तो विशेवासना भी दूर हो जाती है और वे हर समय परमात्मा को अपने निकट अनुभव करता रहता है।
एकोंते, ये इंद्रियां बड़ी प्रबल और लोभ कारक हैं। ये ग्यानी पुरुष के मन को भी हट पूरवख हर लेती हैं। अर्थात इंद्रियों को रोकना कठिन है। जो योगी इन सब इंद्रियों का दवन करके मेरा ध्यान करते रहते हैं और इंद्रियां जिसके �
वश्में हैं वे ही स्थिर बुद्धि है इन्द्रियों को वशीभूत किए बिना मन में विशियों का चिंतन बना रहता है
विशियों का चिंतन करने से मन में आशक्ति उत्पन्य होती है तथा आशक्ति से कामना, कामना से क्रोधे
और क्रोध से मोह उत्पन्न होता है
मोह से बुद्धी भ्रम में पड़ जाती है
और उससे बुद्धी नश्ट होने पर
प्राणी का ज्यान और कर्म ही नहीं
स्वेम प्राणी का भी नाश हो जाता है
हे अर्जुन, वै पुरुष
जिसने अपना मन वश में कर लिया है
वैराग द्वेश से रहित होकर
इंद्रियों के विश्यों का सेवन करता हुआ भी
शान्ती पाता है
शान्ती के प्राप्त होने पर
पुरुष के सब दुख मिट जाते हैं
और उस शान्त चित वाले पुरुष की बुद्धी
शीगर ही इस्तिर हो जाती है
जिस पुरुष ने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं किया है
उसकी बुद्धी इस्तिर नहीं होती
इस प्रकार के एस्तिर मनवाले व्यक्ती
द्वार्थित्ता आत्मा और परमात्मा के ध्यान का आधिकारी नहीं हो सकते। ध्यान के बिना शांति नहीं और बिना शांति के परमानन्द नहीं मिलता है। मन से विश्यों को भोगने वाला इंदिरियों से प्राप्त होने वाले सुखों के पीछे लगा रहता है। अते उस
आउ जिस समय रात्री में सभी प्राणी सोते हैं, वे आत्म निष्टावान पुरुषों का दिन है, जिसमें सब प्राणी जागते हैं, वे उन पुरुषों की रात्री है, क्योंकि विश्या सक्त पुरुषों को आत्म तत्व ज्ञान नहीं है, इसलिए इस विशेय में उन्ह
इसी तरहें सांसारिक विश्यों का सुख प्राणी के लिए दिन है और योगियों को रात्री के समान है, क्योंकि वै विशे भोगों को कुछ नहीं मानते हैं, ये अर्जुन जैसे समुद्र में पून रूप से जल भरा हुआ है और उसमें बहुत सी नदियों और नालों का जल
सब कामनाएं लीन होती हैं, फिर भी उनको शांती बनी रहती है।
परन्तु कामनाओं में डूब कर फल की इच्छा करने वाले व्यक्तियों को शांती नहीं मिलती है।
जो पुरुष समस्त कामनाओं को छोड़कर, नहीं स्वार्थ होकर, विचरता है और मम्ता तथा अंकार को छोड़ देता है, वही शांती को पाता है।
जो पुरुष समस्त कामनाओं को छोड़कर, नहीं स्वार्थ होकर, वही शांती को छोड़कर, वही शांती को छोड़ता है।
तो बोलिये शी किष्ण भगवाने की जैए।