Nhạc sĩ: Traditional
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श्री क्रेश्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायन वासु देवा
बोलिये बागे बिहारी लाले की जे
प्रिय भक्तो श्रीमत भागवत कीता का तीसरा अध्याय आरंब करते हैं
और इसकी कथा है कर्म योग एवं अनासक्ति
तो आई आरंब करते हैं
बोलिये शी किष्ण भगवाने की जे
अर्जुन ने कहा
हे जनारदन आप कर्म योग से ज्ञान योग को श्रीष्ट बतला रहे हो
तो यह है जो युद्ध का भयानक कर्म है
इससे मुझको क्यों जोड़ते हो
आपने अभी परस्पर कुछ मिली हुई अनेक प्रकार की बाते कही है
इससे मेरी बुद्धी और भी संदेह में पड़ गई है
आपकी इन बातों से मेरी समझ में कुछ नहीं आता
कि मैं क्या करूँ
आपसे निवेदन है
कि अब एक बात निश्चित करके कहो
जिससे मेरा कल्यान हो
अर्जुन की ये बात सुनकर
भगवान शी कृष्ण बोले
हे अर्जुन
मैंने जो इस संसार में
तत्वज्ञान निष्ठा
और कर्म योग निष्ठा कही है
उसमें सांखे वालों को
तत्वज्ञान निष्ठा
और योगियों को
कर्म योग निष्ठा
प्रिये है
कर्म किये बिना मनुष्य
तत्वज्ञान को नहीं पाता है
क्योंकि केवल सन्यास ले लेने से ही
चित शुद्ध किये बिना
सिध्धी प्राप्त नहीं हो सकती
वैसे भी कर्म रहित हो पाना संभव ही नहीं
क्योंकि किसी भी अवस्था में कोई प्राणी शरीर, मन और वचन से कर्म किये बिना ख्षन भर भी नहीं रह सकता
प्रकृति के जो राग, द्वेश आदि गुण हैं
उनके वशीभूत होकर सब प्राणियों को कर्म करना ही पढ़ता है
हे अर्जुन, हाथ पहावादी कर्म करने वाली इन्द्रियों को वशीभूत करके
भगवान के इस्मर्ण के बहाने से जो व्यक्ति मन में इन्द्रियों का ध्यान करता रहता है
वह मूड मिठ्याचारी है
हे अर्जुन
जो प्राणी इंद्रियों को मन से रोग कर
अर्थात
अपने सब कर्मों में अपने को भगवान के अधीन मानते हुए
कर्म इंद्रियों से कर्म योग का आरंभ करता है
और फल की च्छा नहीं रखता
वही शेष्ट है
इसलिए हे अर्जुन
तु निश्चे करके कर्म कर
कर्म ने करने से कर्म करना शेष्ट है
कर्म करना छोड़ देने पर तो
तेरे शरीर का निर्वाह होना भी कटिन हो जाएगा
हे पार्थ
भगवान के आराधनार्थ
जो कर्म है
उसे छोड़कर जितनी भी वस्तुएं हैं
वे सब बंधन रूप हैं
इसलिए हे अर्जन
भगवान की आराधना के निमित
तो निशकाम होकर कर्म करने में प्रवित्त हो
परमात्मा ने स्रिष्टी रचना के समय
यग्य के साथ प्रजा को रच कर कहा
कि इससे तुम्हारी व्रध्धी होगी
और यही तुम्हारे सब मनोर्थों को पून करेगा
तुम यग्याधी करम से देवताओं और भगवान का पूजन करो
तव्वे देवता भी वर्षा आधी से
अन्नाधी की व्रध्धी कर तुम्हारी व्रध्धी करेंगे
इस तरहें आपस में एक दूसरे की व्रद्धी करने में
तुम सब का बहुत भला होगा
यज्ञों से पूजित देवता तुम को मनवानचित फल देवेंगे
और जो कोई इनके दिये भागों को
इनके निमित दिये बिना भोगेंगे वे चोर हैं
हे अर्जुन जो ग्रहस्त बरी वैश्रदेवादी पंच यग्य करके भोजन करते हैं
वे ग्रहस्तों के पांच पापों से छूट जाते हैं
इसके विपरीत जो केवल अपने लिए भोजन बनाते हैं
और बिना देवताओं के अरपण किये आप ही भोजन कर लेते हैं
वे प्राणी सब पापों को भोकते हैं
हे अर्जुन
सब शरीर धारी प्राणी अन्ण से होते हैं
पर्थम अन्ण पेट में जाता है
और फिर वे रस रूप होकर
वीरिय और रक्त की व्रद्धी कर
प्राणियों की उत्पत्ती करता है
यह अन्ण मेग से होता है
व्यापक और यज्ञ में सदैव रहता है, इससे यज्ञादी कर्म अवश्य ही करने चाहिए। इन कर्मों के करने से संसार का कल्यान होता है। यज्ञादी कारियों में जो प्रवत्त नहीं होते तथा केवल इंद्रियों के विशय भोग में लगे रहते हैं, उनका जीवन नि
आशक्ति नहीं लगाती है। ऐसे तत्वज्ञानी पुरुष को कर्म अवश्य करना चाहिए। उनको किसी भले अथवा बुरे किये गए कर्म का फल नहीं मिलता और कुछ पाप भी नहीं लगता, क्योंकि ज्ञानी अहंकार से रहित होता है। इससे उसे कुछ विदि निश
उने निरंतर अवश्य करो। जो फल की अभिलाशा को छोड़कर कर्म करते हैं, उने मोक्ष अवश्य मिलता है। ए बार्थ, संध्यावन्णन आदी निर्द्य कर्म हैं और पुत्रादी जन्म लेने के निमित जो कर्म किये जाते हैं, उनको नैमित्तिक कर्म कहते हैं।
राजा विदेहे, जो ऐसे ग्यानी हो गए हैं, उनको भी कर्म करने से सिध्धी मिली थी।
इससे तु अपने को बड़ा ग्यानी समस्ता है, तो भी लोग संग्रहे के लिए कर्म करना उचित है।
हे अर्जुन, बड़े आदमी जो कर्म करते हैं, उनी कर्मों को साधार्ण मनुष्य किया करते हैं, और वे जिन बातों को प्रमान मान लेते हैं, लोग भी उनी के अनुगामी हो जाते हैं।
हे अर्जुन, इसलिए संसार चक्र को चलाने हे तु भी, तेरा कर्म करना आवश्यक है।
हे पार्थ, तु मुझको ही देख, मुझको तीनों लोकों में कुछ करना नहीं है और नहीं किसी वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाशा है, तब भी मैं कर्म करता हूँ।
जो मैं ही आलश्य छोड़कर और सावधान होकर कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ, तो सब मनुष्य सत्कर्मों का त्याग कर बैठेंगे, अर्थात कर्म करना छोड़ देंगे।
जो मैं ही आलश्य छोड़कर और सावधान होकर कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ, तब भी मैं कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ।
जो मैं ही आलश्य छोड़कर और सावधान होकर कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ, तब भी मैं कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ।
जो मैं ही आलश्य छोड़कर और सावधान हूँ, तब भी मैं कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ।
जो मैं ही आलश्य छोड़कर और सावधान हूँ, तब भी मैं कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ।
जो मैं आलश्य छोड़कर और सावधान हूँ, तब भी मैं कर्म करने में प्रिवित्त न हूँ।
अराय धर्म से अपना धर्म, गुण से रहित होने पर भी शेष्ट है, अपने धर्म पर मरना शेष्ट है।
तेरा जो युद्ध रूप क्षत्रिय धर्म है, इसमें मरने पर भी स्वर्ग मिलेगा और त्यागने से नरक प्राप्त होगा।
अरजुन ने कहा, हे कृष्ण, पाप करने की इच्छा किसी की नहीं होती।
अरजुन ने कहा, हे कृष्ण, पाप करने की नहीं होती।
अरजुन ने कहा, हे कृष्ण, पाप करने की नहीं होती।
हे अरजुन, संपून इंद्रियां, मन और बुद्धी ये काम के उत्पत्ती स्थान और निवास की जगे हैं।
इनमें बसकर ये मनुष्यों को मोहित करते हैं।
इसलिए हे भरत कुल भूषन, उपर कहे हुए कारणों से तु पहले इंद्रियों, मन और बुद्धी को वश्मे कर।
क्योंकि ये बड़े पाप रूप हैं।
आत्मज्ञान और शास्त्रज्ञान दोनों पापों का नाश करने वाले हैं।
ब्रह्म जो इस थूल पदार्थ हैं, उन से इंद्रिये परे और शेष्ट हैं।
बुद्धी मन से परे और शेष्ट हैं, और बुद्धी से परे आत्मा सर्व शेष्ट हैं।
इसी आत्मा को यह दुष्ट काम मोहित करता हैं।
हे महाबाहो इस त्रहें बुद्धी से परे आत्मा को जानकर और मन को वश्मे करके इस महा अजेकाम और क्रोध रूपी जो शत्रू है उनको दमन करके अपना कर्म अर्थात युद्ध कर।
बोलिये शीक्रिष्ण भगवाने की जेत। इति श्रीमत भगवत गीता कर्म योगो नाम तिर्ति अध्याय समाप्तम्। बोलिये शीक्रिष्ण भगवाने की जेत।
प्रिये भक्तो इस प्रकार यहाँ पर शीमत भगवत गीता का तीसरा अध्याय समाप्त होता है
बोलिये शी कृष्ण भगवाने की जै
ओम नमो भगवते वासु देवाए नमहा